रविवार, 6 दिसंबर 2009

क्या कहूं

आज शाम को जब मैं पत्रिका की दुकान पर खड़ा था तो वह आदमी वहां पहले से ही खड़ा था। शायद मेरे ही जैसे किसी व्यक्ति के इंतज़ार में था। नज़रें मिलते ही वो मेरे पास आया औरबोला, 'साब ज़ी, थोड़ी मदद कर दो। बड़ा एहसान होगा। ' यह जान कर भी कि ऐसा नहीं है मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि वो सामान्य भिखारी निकले।
मैंने तोलने की दृष्टि से उसे देखा। वो करीब ३५-३६ वर्षीय युवक था।मध्यम कद, थोड़ा गोल सा चेहरा, थोड़े कम बाल। कपड़े थोड़े पुराने और जाड़े के हिसाब से थोड़े कम. शायद वो नेपाल से था। असमिया भी हो सकता था। बोली से वो इन दोनों ही तरह का लग रहा था। जैसे जी को ज़ी कहना। गो मैं उसकी बात सुनने का प्रयास कर रहा था, चेहरे से येही ज़ाहिर कर रहा था कि मैं बिल्कुल भी तवज्जो नहीं दे रहा हूँ और दूकानदार से बात करने में व्यस्त हूँ। तभी उस आदमी ने कुछ कहते हुए नीचे की ओर इशारा किया। चाहते हुए भी मेरी निगाह उस ओर घूम गई। एक महिला, एक ११-१२ वर्ष की सुंदर पर मैल भरे चेहरे वाली लड़की, और एक - वर्षका कमज़ोर सा लड़का वहीं ज़मीन पर बैठे थे। एक लोहे का बक्सा, एक गठरी और एक चेन वाला बैग जैसा स्टेशन रोड की दुकानों में मिलता है, उनके पास पड़े हुए थे। छोटा बच्चा बैग पर बैठा था। उसकी माँ और बहिन ज़मीन पर उकडूं बैठे थे। मैं उनकी हालत समझना चाहता था। पर डरता था कि कही वे गले पड़ जायें। बहुत हद तक ये लगता था कि वे किसी बड़े बंगले में काम करते रहे होंगे। आदमी चौकीदारी का, बीवी झाड़ू-पोंछे-बर्तन का कमकरती रही होगी। लड़की शायद माँ का हाथ बंटाती रही होगी। और लड़का शायद स्कूल जाता रहा होगा। शायद इन्हें एक साथ नौकरी से निकाल दिया गया हो। जल्दी से मैंने अपना ध्यान उसके परिवार कि ओर से हटाया। कहीं में द्रवित हो कर सचमुच पैसे दे बैठूं। तभी उस आदमी की अस्पष्ट आवाज़ फिर सुनाई पड़ी और मैं वर्तमान में लौटा 'साब ज़ी, पचास रूपया दे दो तो हम लोग कुछ खा लें।'
मैं फिर सोचने लगा। 'आखिर इन्हें क्यों निकला गया होगा।और जो ज़वाब सूझा वो था 'ज़रूर इन्होंने चोरी की होगी। और किसी चोर को कोई अपने घर में क्यूँ रखेगा।'
- ' they got what they deserved. फिर मैंने अपने तर्क पर ख़ुद को शाबाशी दी, दुकानदार को भुगतान किया, औरउस आदमी से नज़रें मिलाये बिना सामान की लिस्ट पर नज़र रखते हुए तेज़ क़दमों से वहां से चल दिया।
और अब रात के बारह बजे, पिछले डेढ़ घंटे से ख़ुद से लड़ रहा हूँ। क्या मुझे पैसे दे देने चाहिए थे? क्या वे वाकई चोर थे? या ये मेरा convenient तर्क था? या मैं भी hypocrite होता जा रहा हूँ?

5 टिप्‍पणियां:

KK Mishra of Manhan ने कहा…

जब वक्त पर निर्णय नही ले पाए तो अब पछताने से क्या होगा, निर्णय लेने की क्षमता विकसित की जिए, और कुंठा निकालने के लिए ब्लाग लेखन ये तो बिल्कुल ठीक नही। आप नज़रे नही मिला रहे थे इसका मतलब यही है आप में आत्मविश्वास नही है और न ही समाज़ सेवा करने की कूबत और न ही जिम्मेदार व्यक्तित्व, यही साबित होता है। माफ़ करिए गा यदि बुरा लगे

Anita kumar ने कहा…

्खुद से लड़ना अच्छा है, व्यक्तिगत विकास की निशानी है। वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा दिजिए प्लीज

sudesh ने कहा…

आपकी प्रतिक्रिया सर आँखों पर सर! मैं न तो समाज सुधारक हूँ, न ही कोई कुंठा ग्रंथि पालता हूँ। यह सच है कि ब्लॉगिंग एक अद्भुत टूल है। और इन्टरनेट एक चमत्कारी मध्यम। वरना कैसे मेरे जैसे अधकचरे ब्लॉगर को आप जैसा सुधी पाठक पढ़े और कमेन्ट लिखने की जेहमत उठाये, आम माध्यमों में तो सोचा ही नही जा सकता है।
मैंने वो ही लिखा जो मैंने महसूस किया। शायद एक गिल्ट फीलिंग, और उससे जुड़ी बातें जो शायद मैं और कहीं कन्फेस नहीं कर सकता था। शायद इससे मुझे दृढ़ता मिली है कि आगे ऐसी दुविधा जनक स्थितियों में मैं बेहतर रेस्पोंड कर पाऊँगा।
सब कहते हैं कि 'अब पछताए क्या होत?' पर क्या पछताना इतना बुरा है? या व्यक्ति को पछतावा होना ही नही चाहिए? क्योंकि अब तो कुछ हो नही सकता। तो जो हुआ अच्छा हुआ (गीता!!)
नहीं सर मुझे बुरा नही लगा। बस थोड़ा सोचने पर मजबूर हुआ। पर आप अपनी प्रतिक्रियाएं ज़रूर देते रहिएगा।
मैंने अजय जी के बताये अनुसार वर्ड verification हटा लिया है।

sindbad ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
सागर नाहर ने कहा…

आपने एक गलती तो की वो यह कि बिना जाने यह अनुमान कैसे लगा लिया कि उन्होने चोरी की होगी? हाँ आपने उनकी मदद ना कर या भीख ना देकर कोई गलती नहीं की।
अपराध बोध मन से निकाल दें।