बहुत बरस पहले सुना था कि मुन्शी प्रेमचन्द भी माया नगरी पहुंचे थे. कुछ फ़िल्मों के लिए पटकथाएं भी लिखीं. नागर जी और उनकी सुपुत्री, भगवती बाबू, रेणु जी (शैलेन्द्र की वजह से), नीरज, आज कल उदय प्रकाश, बीच मे मन्नू जी, राजेन्द्र जी, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, बच्चन जी आदि आदि अनेक नाम कभी न कभी बालीवुड से जुड़े थे. लेकिन तथाकथित हिन्दी फ़िल्मों के व्यवसाय के कर्ता धर्ता यानी निर्माता, निर्देशक और अभिनेता/अभिनेत्रियां हिन्दी से इतनी दूर नज़र आते हैं कि ऐसा लगता है कि हिन्दी इनके लिए मात्र कमाई की भाषा ही है, बोल चाल की नहीं.
ऐसा क्षेत्रीय फ़िल्मों से जुड़े लोगो में तनिक कम लगता है. लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओं के अभिनेतागण सार्वजनिक रूप से और मीडिया पर भी अपनी अपनी भाषा में ही बात-चीत करते नज़र आते है. बांग्ला, कन्नड़, तमिल, तेलुगू, मलयालम, मराठी आदि भाषाओं के फ़िल्म कलाकार अपनी अपनी भाषा के साहित्य से भी वाकिफ़ लगते हैं. अफ़सोस की बात है कि हिन्दी फ़िल्म उद्योग से जुड़े लोगों को हिन्दी साहित्य से कोई जुड़ाव हो ऐसा कभी भी नहीं लगता. बालीवुड के आज के स्टारों मे एक अमिताभ जी को छोड़ कर शायद ही कोई हो जो हिन्दी मे वार्तालाप कर सके. आश्चर्य तो तब होता है जब हिन्दी पट्टी से पहुंचे कलाकार, जो हिन्दी नाटकों से हो कर आगे बढ़े हैं, एकदम से अंग्रेज़ीदां बनने की कोशिश करने लगते हैं. मनोज बाजपेयी, शेखर सुमन आदि को क्या कहें.
बहुत पहले देवानन्द और वहीदा अभिनीत एक फ़िल्म देखी थी - ’काला बाज़ार’. फ़िल्म की कहानी तो अब ठीक ठीक नही याद है, पर एक ऐसा दॄश्य है फ़िल्म में जब नायिका अपने कालेज के पास एक बाग मे बैठ कर एक किताब पढ़ रही होती है, और कैमरा ज़ूम होने पर दिखता है कि वह पुस्तक ’कामायनी’ है. आजकल पहले तो फ़िल्मी पात्र पर्दे पर कुछ पढ़ते नज़र आते ही नहीं, और अगर ऐसा गलती से कभी हो भी जाए तो उनके हाथों में हिन्दी की कोई किताब तो शायद ही होगी. (यदि आपको कोई किरदार पर्दे पर कोई किताब पढते नज़र आया हो तो कॄपया ज़रूर बताएं.)
शनिवार, 9 जनवरी 2010
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